नए कानून से किस पर कितना होगा असर
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली राजग की नरेंद्र मोदी सरकार के 10 सालों में कई क़ानूनों में बदलाव किए गए हैं. बदले गए कानूनों में ब्रिटिश शासन के दौर के कानूनों में किया गया बदलाव है, तो सीएए जैसे नए विवादित कानून भी हैं. उनका नागरिकों पर अच्छा—खासा असर होने वाला है.
विपक्षी दलों और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक, इनमें से कई बदलाव ऐसे हैं जिनकी वजह से नागरिक अधिकारों में कटौती हुई है और सरकार को और अधिक अधिकार मिले हैं.
1. नए आपराधिक कानून
दिसंबर, 2023 में केंद्र सरकार ने देश में बीते 150 साल से चले आ रहे तीन बुनियादी आपराधिक क़ानूनों में बडे पैमाने पर बदलाव किए.
ये तीनों क़ानून थे- भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) 1860, दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) 1973 और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट), 1872.
सरकार ने कहा कि ये क़ानून ब्रिटिश हुकूमत के दौर के हैं और इन्हें भारतीयों पर शासन करने के लिए बनाया गया था.
कई विशेषज्ञों के मुताबिक, सबसे पहली बात है कि नये क़ानूनों में अधिकांश प्रावधान पुराने क़ानूनों से ही लिए गए हैं.
इसके अलावा, नए क़ानूनों में कई नए अपराधों को शामिल किया गया है. कई जानकारों ने इन कानूनों के बेजा इस्तेमाल को लेकर चिंता जताई है.
मसलन, राजद्रोह अधिनियम को तो हटा दिया गया है लेकिन "देश की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा" करने के लिए प्रावधान लाए गए हैं, जानकार कहते हैं कि इस कानून में अपराध का दायरा बहुत बड़ा रखा गया है इसलिए इसके दुरुपयोग की आशंका अधिक है.
एक बड़ा बदलाव पुलिस हिरासत में रखने की समय सीमा को लेकर भी किया गया है.
अभी तक के प्रावधानों के मुताबिक़, किसी व्यक्ति को अधिकतम 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखा जा सकता था, लेकिन अब इसे बढ़ाकर, अपराध की गंभीरता के मुताबिक 60 और 90 दिन तक कर दिया गया है.
हालांकि कुछ बदलावों को विशेषज्ञ उम्मीद की नज़रों से देख रहे हैं. आधारभूत ढांचों के मौजूद होने पर ये उपयोगी भी हो सकते हैं.
मसलन, अब सभी अपराधों में साक्ष्यों के फारेंसिक कलेक्शन को अनिवार्य बना दिया गया है. मामले की सुनवाई के दौरान सभी स्तरों पर सूचना तकनीक के बेहतर इस्तेमाल को लागू किया गया है.
साथ ही, जांच और न्यायिक फ़ैसले के लिए अनिवार्य तौर पर समय सीमा लागू की जा रही है.हालांकि इन क़ानूनों को जिस तरह से पारित किया गया है, उसकी आलोचना भी की जा रही है.
जिस समय में ये तीनों क़ानून पारित हुए, उस वक्त स्पीकर ने 150 विपक्षी सांसदों को निलंबित किया हुआ था. यह भारत के संसदीय इतिहास में पहला मौका था, जब एक सत्र के दौरान इतनी बड़ी संख्या में निलंबन हुआ था.ज़ाहिर है कि इन विधेयकों को विपक्ष के सांसदों के सामने चर्चा के लिए पेश नहीं किया गया.
2. गोहत्या और गोवंश रक्षा से जुड़े कानून
बीजेपी शासित कम-से-कम पांच राज्यों में मवेशियों को काटने और उनके परिवहन पर पाबंदी लगाने के लिए या तो नए क़ानून बनाए गए हैं या फिर मौजूदा गोरक्षा क़ानून को अधिक सख़्त बना दिया गया है.
मसलन, कर्नाटक ने अपने 1964 अधिनियम को बदलते हुए 2020 में गोहत्या रोकथाम और मवेशी संरक्षण क़ानून लागू किया.
राज्य में गोहत्या पर पहले भी प्रतिबंध था लेकिन नए क़ानून के मुताबिक राज्य सरकार ने 13 वर्ष से कम उम्र के सांड, बैल और भैंस को काटने पर भी पाबंदी लगा दी.इस मामले में छह महीने की सज़ा को बढ़ाकर सात साल कर दिया गया है.
नए क़ानून का मक़सद बड़े जानवरों के माँस की खपत पर पाबंदी लगाना ही है, हालांकि क़ानून प्रत्यक्ष तौर पर ऐसा कुछ नहीं कहता है. नए क़ानून का असर मवेशियों की ख़रीद बिक्री और उनको एक जगह से दूसरे जगह लाने- ले जाने पर भी पड़ा है.
ऐसे बदलाव हरियाणा, गुजरात, असम और महाराष्ट्र जैसे अन्य राज्यों में भी किए गए हैं. गुजरात में गोहत्या के मामले में सात साल की सज़ा को बढ़ाकर अधिकतम आजीवन कारावास कर दिया गया है.
भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी की सरकार है और वहां पिछले दिनों हलाल सर्टिफिकेट वाले कई उत्पादों पर पाबंदी लगा दी गई है.
हालांकि भारत में केरल, मेघालय और नागालैंड जैसे कुछ राज्यों में अभी भी गोमांस पर रोक नहीं है, वहीं कुछ राज्यों के गोमांस पर पाबंदी संबंधी क़ानून अब भी अदालतों में लंबित हैं.
2016 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने गोमांस रखने के एक मामले में अभियुक्तों को अपराधी मानने को असंवैधानिक करार दिया था. इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है और यह मामला फ़िलहाल लंबित है.
3. इंटरनेट और सोशल मीडिया पर रोकटोक
2021 में केंद्र सरकार ने 'इंटरमीडियरी गाइडलाइन और डिजिटल मीडिया एथिक्स कोड नियम, 2021 लागू किया. नए क़ानून के ज़रिए आप सोशल मीडिया पर किस तरह की जानकारी पोस्ट कर सकते हैं, या प्रसारित कर सकते हैं, उस पर अंकुश लगाया जा सकता है.
यह समाचार वेबसाइटों और नेटफ्लिक्स जैसे ओटीटी प्लेटफार्मों से लेकर यूट्यूबरों तक को नियंत्रित करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.
इस क़ानून को अंसैवाधानिक बताते हुए कई हाई कोर्टों में इसे चुनौती दी गई. दो उच्च न्यायालयों ने प्रथम दृष्टया इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन मानते हुए नये नियमों के कुछ हिस्सों पर रोक लगा दी है.
इसी कानून के तहत सरकार ने एक फैक्ट चेकिंग संस्था का गठन कर सकती है जो खबरों की वैधता की जाँच करेगा, अगर ये संस्था किसी खबर को ग़लत बताए तो वेबसाइटों, गूगल, फ़ेसबुक और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स को उसे हटाना होगा.
पत्रकारों को आशंका है कि इसकी वजह से सरकार को जो भी खबर किसी कारण से पसंद नहीं आएगी उसे हटवाया दिया जाएगा. इस मामले में एक याचिका बॉम्बे हाई कोर्ट में लंबित है.
सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की फैक्ट चेकिंग यूनिट की अधिसूचना पर फ़िलहाल रोक लगा दी है.वहीं दूसरी ओर इंटरनेट और सोशल मीडिया पर कंटेंट को हटाने संबंधी आदेश भी बढ़े हैं.
मसलन, भारत में 2022 में 3417 एक्स (ट्विटर) यूआरएल को ब्लॉक किया गया था, जबकि 2014 में केवल आठ ट्विटर यूआरएल को ब्लॉक किया गया था. इन पोस्टों को ब्लॉक करने की प्रक्रिया पूरी तरह से अपारदर्शी है और इन्हें सरकार के निर्देश पर हुई कार्रवाई माना जाता है.
पहली बार 2022 में, सोशल प्लेटफॉर्म एक्स ने 39 कंटेंट हटाने के सरकारी आदेशों को चुनौती दी, इस दौरान यह भी पता चला कि 2021 में किसानों के विरोध प्रदर्शन से जुड़े पोस्ट करने वाले एक एकाउंट को ब्लॉक किया गया था.
इस दौरान देश भर में इंटरनेट शटडाउन भी तेजी से बढ़ा है. भारत दुनिया भर में इंटरनेट शटडाउन की संख्या में शीर्ष पर है, दुनिया में आधे से अधिक शटडाउन भारत में हुए हैं.
4. निजता की सुरक्षा का सवाल
सांकेतिक तस्वीरइमेज स्रोत,GETTY IMAGES
केंद्र सरकार ने करीब एक दशक की चर्चा के बाद डेटा सुरक्षा संबंधी क़ानून को 2023 में पारित किया है, हालांकि इसके बाद भी इसकी काफ़ी आलोचना हुई.
इस क़ानून में सरकार की ओर से अपवाद माने गए मामलों की आलोचना हो रही है, जहां वे व्यवहारिक तौर पर क़ानून को नज़रअंदाज़ कर सकते हैं.
उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्तिगत डेटा वैसे तो इस क़ानून के तहत आता है, यानी उसे गोपनीय रखा जाना ज़रूरी है, लेकिन भारत सरकार की एजेंसियों पर यह क़ानून तब लागू नहीं होगा जहाँ मामला देश की अखंडता और सार्वजनिक व्यवस्था को बनाए रखने का हो.
इस क़ानून के तहत सभी फ़ैसले और उसे लागू करने की ज़िम्मेदारी, केंद्र सरकार की ओर से नियुक्त एक बोर्ड करेगा.
आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) कानून, 2022 के मुताबिक, किसी भी आरोप में गिरफ़्तार, हिरासत में लिए गए या फिर दोषी करार दिए गए व्यक्ति से पुलिस कई तरह का डेटा ले सकती है, जैसे कि बायोमेट्रिक डेटा और बॉयोलॉजिकल सैंपल.
सरकार के मुताबिक अपराधों की जांच में मदद के लिए ये डेटा आवश्यक हैं. हालांकि कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक यह क़ानून सरकार को किसी भी व्यक्ति की पूरी प्रोफाइल बनाने में सक्षम बनाता है, यह उस व्यक्ति विशेष की निजता के लिए ख़तरे के तौर पर देखा जा सकता है.
5. विवाह और तलाक़
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2017 से बीजेपी शासित कम-से-कम सात राज्यों में या तो धर्मांतरण विरोधी क़ानून को सख़्त किया गया है और अंतरधार्मिक विवाह संबंधी नए क़ानून पारित किए गए हैं.
नए कानूनों ने अंतरधार्मिक विवाहों को करीब-करीब असंभव बना दिया है, अंतरधार्मिक विवाह के बाद होने वाले धर्म परिवर्तन भी बेहद मुश्किल हो गए हैं.
यह बदलाव हिंदुत्व समर्थकों के उन आरोपों के आधार पर किया गया है जिसके मुताबिक मुस्लिम पुरुष हिंदू महिला को शादी के लिए प्रलोभन देकर उनका धर्मांतरण कराते हैं.इन क़ानूनों के तहत अब अंतरधार्मिक जोड़ों को शादी से पहले ज़िला मजिस्ट्रेट स्तर के अधिकारी से अनुमति लेनी होगी. इसके लिए नोटिस जारी किया जाएगा, ताकि विवाह को लेकर अगर किसी को आपत्ति हो तो वह उसे दर्ज करा सके.
कई मीडियो रिपोर्ट्स के मुताबिक, इन क़ानूनों का इस्तेमाल अंतरधार्मिक जोड़ों को परेशान करने के लिए किया जाता है, ख़ासकर अगर पुरुष अल्पसंख्यक समुदाय से हुआ तो ये उत्पीड़न और बढ़ जाता है. इन प्रावधानों को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है.
कम से कम दो हाई कोर्टों ने अपने-अपने राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानूनों के विभिन्न प्रावधानों, जैसे मजिस्ट्रेट की अनुमति और विवाह पूर्व सूचना जारी करने रोक लगा दी है, कहा है कि यह अपनी पसंद के व्यक्ति से शादी करने के अधिकार को प्रभावित करता है और इस तरह से यह मौलिक अधिकार का हनन है.
एक और बड़ा बदलाव उत्तराखंड सरकार का समान नागरिक संहिता कानून (यूसीसी) को पारित करना रहा है. समान नागरिक संहिता बीजेपी का पुराना वादा रहा है.
इस कानून में उल्लेखनीय बदलावों में से एक यह है कि अब साथ रहने वाले अंतरधार्मिक जोड़ों को भी इसका पंजीकरण कराना होगा और सरकार से मंजूरी लेनी होगी. इसके अलावा एक पत्नी के रहते किसी मुसलमान व्यक्ति के दूसरे विवाह को गैरक़ानूनी माना गया है.
यूसीसी की एक और आलोचना यह है कि यह काफ़ी हद तक हिंदू क़ानून से प्रेरित है हालांकि राज्य सरकार का कहना है कि यह क़ानून विभिन्न धर्मों के साथ एकसमान व्यवहार सुनिश्चित करेगा.
6. सरकार से सूचना हासिल करना कितना आसान?
पिछले कुछ सालों में सूचना का अधिकार क़ानून में कई बदलाव किए गए हैं. यह सरकार के सभी स्तरों पर पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिए बनाया गया एक महत्वपूर्ण क़ानून है.
इसमें संभवतः सबसे बड़ी चुनौती, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम से जुड़े प्रावधान ही हैं.जब 2023 में क़ानून लागू किया गया था, तो बीबीसी ने रिपोर्ट की थी कि कैसे अधिकारी यह कहकर सूचना देने से इनकार कर सकते हैं कि यह किसी की व्यक्तिगत जानकारी है, क्योंकि आरटीआई के तहत सामने आए लगभग सभी डेटा में व्यक्तिगत जानकारी का कोई न कोई पहलू जुड़ा होता है.
इसके अलावा, 2019 में सूचना का अधिकार क़ानून में संशोधन किया गया. इस संशोधन के बाद अब केंद्र सरकार सूचना आयुक्तों की नियुक्ति की शर्तें निर्धारित कर सकती है जबकि यह पहले से तयशुदा रूप में निर्धारित थीं.
इतना ही नहीं, यह संशोधन सरकार को आयुक्तों के लिए वेतन और सेवा की शर्तें तय करने की शक्ति भी देता है. इसे सूचना आयोगों पर सरकार के बढ़ते नियंत्रण के तौर पर देखा जा रहा है.
7. आरक्षण की व्यवस्था का सवाल
पिछले 10 सालों में बीजेपी सरकार ने जो अहम बदलाव किए हैं, उनमें सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था शुरू करना भी शामिल है.
शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में दस प्रतिशत पदों के लिए पहले से आरक्षित समूहों यानी अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को बाहर रखा गया है.
केंद्र सरकार के इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और पांच न्यायाधीशों की पीठ ने 3:2 के बहुमत से इस फ़ैसले से इसे बरकरार रखा.
पीठ की सुनवाई के दौरान एक मुद्दा यह था कि क्या इस संशोधन को इस आधार पर रद्द कर दिया जाए कि यह 1992 में सुप्रीम कोर्ट की ओर से निर्धारित 50 प्रतिशत की आरक्षण सीमा का उल्लंघन करता है.
एक न्यायाधीश ने अपने फ़ैसले में लिखा कि 50 प्रतिशत की सीमा केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के सदस्यों के लिए मौजूदा आरक्षण पर लागू होती है, न कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग वाले (ईडब्ल्यूएस) आरक्षण पर.
इस फ़ैसले के बाद, फरवरी 2024 में महाराष्ट्र विधानसभा ने शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मराठों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने वाला एक विधेयक पारित किया.
इससे पहले बिना किसी वैध आधार के 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन करने के कारण सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था.
कई राज्यों ने पहले भी 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन किया है, उदाहरण के लिए, तमिलनाडु, में 69 प्रतिशत नौकरियों के लिए आरक्षण है. इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है.
8. मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट को सख़्त किया गया
2019 में केंद्र सरकार ने 2002 के मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट में व्यापक बदलाव किया, जिससे क़ानून का दायरा काफ़ी बढ़ गया था. यह क़ानून शुरू से ही सख़्त था लेकिन क़ानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक नए प्रावधानों ने इसे और कठोर बना दिया गया है.
संशोधन के बाद मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में केंद्रीय एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) एफ़आईआर के बिना भी जांच शुरू कर सकती है.
इसके अलावा क़ानून का दायरा बढ़ा दिया गया है. अपराध से प्रत्यक्ष तौर पर सीधा जुड़ाव नहीं होने पर भी, अगर आपके पास उस अपराध से लाभ पहुंचा है तो यह दंडनीय अपराध होगा.
मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने साल 2017 में ज़मानत के लिए कुछ शर्तों को रद्द कर दिया था जिनके आधार पहले किसी अभियुक्त को जमानत मिल जाती थी.
इन शर्तों के तहत अभियुक्त के ज़मानत पर रहने के दौरान कोई अपराध करने की आशंका न होने पर ज़मानत दे दी जाती थी.
हालांकि, साल 2019 में इन शर्तों को फिर से लागू कर दिया गया. लेकिन 2022 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2017 में किए गए बदलावों को फिर से लागू कर दिया.
इस निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों सहित क़ानूनी विशेषज्ञों की कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ा और वर्तमान में इसकी समीक्षा की जा रही है.वैसे इस क़ानून का इस्तेमाल कई गुना बढ़ गया है. 2018 में ईडी ने 195 मामले दर्ज किए, जबकि 2020 में 981 मामले दर्ज किए.
2004-14 के दस साल की मनमोहन सरकार के दौरान ईडी ने 5,436 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की और 104 आरोपपत्र दाख़िल किए. जबकि बीते 2014 से 2022 के आठ सालों में ईडी ने 99,356 करोड़ रुपये की संपत्ति जब्त की है और इस दौरान 888 आरोपपत्र दाख़िल किए हैं.
ईडी की वेबसाइट के मुताबिक, जनवरी, 2023 तक मनी लॉन्ड्रिंग के मामलों के तहत केवल 45 लोगों को दोषी पाया गया है.
इस क़ानून के तहत विपक्ष के कई नेताओं, व्यापारियों और सिविल सोसायटी के सदस्यों को जेल में डाला गया है. साभार:बीबीसी हिंदी.उमंग पोद्दार द्वारा.